संविधान सभा में हिंदी को लेकर हुआ विवाद

14 सितंबर को हर साल हिंदी दिवस के अवसर पर भारत भर में विशेष कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं। इस साल के हिंदी दिवस पर, हमें संविधान सभा के उस ऐतिहासिक क्षण की याद आई जब हिंदी को राष्ट्रीय भाषा बनाने को लेकर तीव्र बहस हुई थी।

संविधान सभा की ऐतिहासिक बहस पर एक नजर

13 सितंबर 1949 को, जब संविधान सभा ने भारत की राजभाषा को लेकर चर्चा की, यह बहस व्यापक और जटिल थी। संविधान सभा के अध्यक्ष डॉ. राजेंद्र प्रसाद की निगरानी में हुई इस बहस ने हिंदी की भूमिका को लेकर कई महत्वपूर्ण मुद्दों को सामने रखा।

रघुनाथ विनायक धुलेकर, जो हिंदी के प्रबल समर्थक थे, ने हिंदी को राष्ट्रीय भाषा बनाने की जोरदार वकालत की। धुलेकर ने अपने भाषण में कहा, “अगर हिंदी को देश की राजभाषा बनाया जाता है तो मुझसे ज्यादा कोई खुश नहीं होगा। हिंदी हमारी मातृभाषा है और इसे आधिकारिक भाषा का दर्जा मिलना चाहिए।”

वहीं, फ्रैंक एंथनी, जो कि एंग्लो-इंडियन समुदाय का प्रतिनिधित्व करते थे, ने हिंदी को राष्ट्रीय भाषा बनाने का विरोध किया। उन्होंने हिंदी की व्यापकता और उसकी उपयोगिता पर सवाल उठाए और दक्षिण भारत के सदस्यों ने भी इस विचार का विरोध किया।

दक्षिण भारतीय नेताओं की चिंता

दक्षिण भारत के राज्यों के सदस्यों ने हिंदी को राष्ट्रीय भाषा बनाने के खिलाफ आवाज उठाई। उनका कहना था कि हिंदी को लागू करने से स्थानीय भाषाओं की अनदेखी हो सकती है और यह एकजुटता के लिए खतरा बन सकता है।

संविधान सभा की अंतिम सहमति

इस बहस के दौरान, पंडित लक्ष्मीकांत मिश्रा ने संस्कृत को राजभाषा बनाने का प्रस्ताव रखा, लेकिन अंततः सभा के निर्णय के बिना कोई ठोस समाधान नहीं निकला। डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने अंततः इस मुद्दे को टालते हुए यह तय किया कि संविधान सभा का निर्णय भाषा के बारे में भावनाओं को उत्तेजित नहीं करना चाहिए।

हिंदी दिवस पर वर्तमान परिप्रेक्ष्य

आज, हिंदी दिवस पर यह याद रखना महत्वपूर्ण है कि संविधान सभा की उस ऐतिहासिक बहस ने भारतीय भाषाई नीतियों की दिशा को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। आज भी, हिंदी देश की एक प्रमुख भाषा है और उसकी स्थिति को लेकर लगातार चर्चा होती रहती है।

हिंदी दिवस पर, हम न केवल हिंदी के महत्व को मान्यता देते हैं बल्कि यह भी समझते हैं कि भारत की भाषाई विविधता हमारी सांस्कृतिक धरोहर का अहम हिस्सा है।

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